सत्संगदीक्षा- हिंदी

  ॥ श्री स्वामीनारायण विजयते

॥ सत्संगदीक्षा ॥

भगवान श्रीस्वामिनारायण अर्थात् साक्षात् श्रीअक्षरपुरुषोत्तम महाराज सभी को परम शांति, आनंद और सुख प्रदान करें। (१)

यह शरीर मुक्ति का साधन है, केवल भोग का नहीं। दुर्लभ और नश्वर यह शरीर बार बार नहीं मिलता। (२)

लौकिक व्यवहार तो शरीर के निर्वाह के लिए है। वह इस मनुष्य जन्म का परम लक्ष्य नहीं है। (३)

सभी दोषों के नाश के लिए, ब्रह्मस्थिति पाने एवं भगवान की भक्ति करने के लिए यह शरीर प्राप्त हुआ है। ये सब कुछ सत्संग करने से अवश्य प्राप्त होता है। इसलिए मुमुक्षुओं को सदैव सत्संग करना चाहिए। (४-५)

इसी उद्देश्य से परब्रह्म श्रीस्वामिनारायण ने इस लोक में साक्षात् अवतरित होकर इस दिव्य सत्संग की स्थापना की। (६)

इस सत्संग का ज्ञान मुमुक्षुओं को प्राप्त हो, इस शुभ आशय से ‘सत्संगदीक्षा’ नामक शास्त्र की रचना की जा रही है। (७)

सत्यस्वरूप आत्मा का संग करना, सत्यस्वरूप परमात्मा का संग करना, सत्यस्वरूप गुरु का संग करना एवं सच्छास्त्र का संग करना यह सत्संग का यथार्थ लक्षण जानें। ऐसा दिव्य सत्संग करनेवाला मनुष्य सुखी होता है। (८-९)

दीक्षा अर्थात् दृढ संकल्प, श्रद्धा के सहित अविचल निश्चय, सम्यक् समर्पण, प्रीतिपूर्वक निष्ठा, व्रत एवं दृढ आश्रय। (१०)

इस शास्त्र में परब्रह्म सहजानंद परमात्मा के द्वारा दर्शित आज्ञा तथा उपासना की पद्धति स्पष्ट रूप से ज्ञापित की गई है। (११)

पुरुष तथा महिलाएँ सभी सत्संग के अधिकारी हैं, सभी सुख के अधिकारी हैं और सभी ब्रह्मविद्या के अधिकारी हैं। (१२)

सत्संग में लिंगभेद से न्यूनता या अधिकता कदापि न समझें। सभी अपनी-अपनी मर्यादा में रहकर भक्ति से मुक्ति पा सकते हैं। (१३)

सकल वर्णों की सभी महिलाएँ तथा सभी पुरुष सर्वदा सत्संग, ब्रह्मविद्या तथा मोक्ष के अधिकारी हैं। वर्ण के आधार पर कभी न्यूनाधिक भाव न करें। सभी जन अपने वर्ण के मान का त्याग कर परस्पर सेवा करें। जाति से कोई महान नहीं है और न्यून भी नहीं है। अतः जाति-पाँति के आधार पर क्लेश न करें और सुखपूर्वक सत्संग करें। (१४-१६)

गृहस्थ तथा त्यागी सभी मोक्ष के अधिकारी हैं। उनमें न्यूनाधिकभाव नहीं है, क्योंकि गृहस्थ या त्यागी सभी भगवान के भक्त हैं। (१७)

भगवान श्रीस्वामिनारायण के प्रति अनन्य, दृढ तथा परम भक्ति के लिए आश्रयदीक्षामंत्र ग्रहण करके सत्संग प्राप्त करें। (१८)

आश्रयदीक्षामंत्र इस प्रकार है:

धन्योस्मि पूर्णकामोस्मि निष्पापो निर्भयः सुखी।

अक्षरगुरुयोगेन स्वामिनारायणाश्रयात् ॥ (१९)

मंत्र का उच्चारण उपर्युक्त प्रकार से ही करें। मंत्र का अर्थ इस प्रकार है: अक्षरब्रह्म गुरु के योग से भगवान श्रीस्वामिनारायण का आश्रय करने से मैं धन्य हूँ, पूर्णकाम हूँ, निष्पाप, निर्भय और सुखी हूँ।

मुमुक्षु अपनी आत्मा की मुक्ति के लिए सहजानंद श्रीहरि तथा अक्षरब्रह्मस्वरूप गुणातीत गुरु का प्रीतिपूर्वक आश्रय करें। (२०)

सत्संग का आश्रय करके गले में सदैव काष्ठ की दोलड़ी कंठी धारण करें तथा सत्संग के नियम धारण करें। (२१)

इस संसार में ब्रह्मस्वरूप गुरु के बिना जीवन में ब्रह्मविद्या का तत्त्वतः साक्षात्कार संभव नहीं है। (२२)

अक्षरब्रह्म गुरु के बिना परमात्मा का उत्तम निर्विकल्प निश्चय नहीं होता तथा अपनी आत्मा में ब्रह्मभाव भी प्राप्त नहीं होता। (२३)

ब्रह्मस्वरूप गुरु के बिना यथार्थ भक्ति भी नहीं होती, परम आनंद की प्राप्ति भी नहीं होती और त्रिविध ताप का नाश भी नहीं होता। (२४)

अतः सर्वार्थ-सिद्धिकर तथा परमात्मा का अनुभव करानेवाले प्रत्यक्ष अक्षरब्रह्म गुरु का आश्रय सदैव करें। (२५)

सभी सत्संगी हर प्रकार के दुर्व्यसनों का सदैव त्याग करें। क्योंकि व्यसन अनेक रोगों तथा दुःखों का कारण है। (२६)

मदिरा, भाँग, तम्बाकू इत्यादि जो भी पदार्थ मादक हों उन्हें कभी भी न खाएँ, न ही पीएँ तथा धूम्रपान का भी त्याग करें। (२७)

सभी महिलाएँ तथा पुरुष हर प्रकार के जुए तथा व्यभिचार का त्याग करें। (२८)

सत्संगी जन मांस, मछली, अंडे तथा प्याज, लहसुन और हींग कदापि न खाएँ। (२९)

जल तथा दूध इत्यादि पेय पदार्थ छाने हुए ही ग्रहण करें। जो खाद्य वस्तु तथा पेय अशुद्ध हों, उन्हें कदापि ग्रहण न करें। (३०)

सत्संगी जन चोरी कदापि न करें। धर्म के लिए भी कभी चोरी न करें। (३१)

पुष्प, फल आदि वस्तुएँ भी उनके स्वामी की अनुमति के बिना न लें। बिना अनुमति के वस्तु लेना सूक्ष्म चोरी कहलाती है। (३२)

मनुष्य, पशु, पक्षी तथा खटमल आदि किसी भी जीवजंतु की हिंसा कदापि न करें। अहिंसा परम धर्म है, हिंसा अधर्म है; ऐसा श्रुति-स्मृति आदि शास्त्रों में स्पष्ट रूप से कहा गया है। (३३-३४)

सत्संगी यज्ञ के लिए भी बकरे आदि निर्दोष प्राणियों की हिंसा कदापि न करें। (३५)

यज्ञ आदि करना हो, तब संप्रदाय के सिद्धांत के अनुसार हिंसारहित ही करें। (३६)

यज्ञ का शेष मानकर या देवता के प्रासादिक नैवेद्य के रूप में भी सत्संगीजन मांस कदापि न खाएँ। (३७)

कदापि किसी का ताड़न न करें। अपशब्द कहना, अपमानित करना इत्यादि किसी भी प्रकार की सूक्ष्म हिंसा भी न करें। (३८)

धन, सत्ता, कीर्ति, स्त्री, पुरुष इत्यादि की प्राप्ति के लिए तथा मान, ईर्ष्या या क्रोध से भी हिंसा न करें। (३७)

मन से, वचन से या कर्म से हिंसा करने से उसमें विराजमान स्वामिनारायण भगवान दुःखित होते हैं। (४०)

आत्महत्या भी हिंसा ही है। ऊपर से गिरना, फाँसी लगाना, विषपान करना इत्यादि किसी भी प्रकार से आत्महत्या कदापि न करें। (४१)

दुःख, लज्जा, भय, क्रोध, रोग इत्यादि आपत्तियों के कारण, या धर्म के लिए भी कोई मनुष्य स्वयं की अथवा अन्य किसी की हत्या न करें। (४२)

मुमुक्षुजन तीर्थ में भी कभी आत्महत्या न करें। मोक्ष या पुण्य पाने की भावना से भी तीर्थ में आत्महत्या कदापि न करें। (४३)

भगवान सर्वकर्ता हैं, दयालु हैं, सर्व के रक्षक हैं और वे ही सदा मेरे सभी संकटों के नाशक हैं। (४४)

भगवान जो भी करते हैं, वह सदैव भले के लिए ही होता है। उनकी इच्छा ही मेरा प्रारब्ध है। वे ही मेरे तारणहार हैं। (४५)

मेरे विघ्न, पाप, दोष तथा दुर्गुण अवश्य नष्ट होंगे। मैं शांति, सुख और परम आनंद को अवश्य प्राप्त करूँगा। (४६)

क्योंकि मुझे साक्षात् श्रीअक्षरपुरुषोत्तम महाराज मिले हैं। उनके बल से मैं निश्चय ही दुःखों को पार कर जाऊँगा। (४७)

इस तरह विचार का बल रखकर आश्रित भक्त कदापि हिम्मत न हारे और भगवान के बल से सदा आनंद में रहे। (४८)

शास्त्रनिषिद्ध तथा लोकवर्जित स्थानों में कदापि न थूकें तथा मल-मूत्रादि न करें। (४९)

सभी प्रकार की बाह्य और आंतरिक शुद्धि का सदा पालन करें। श्रीहरि को शुद्धि प्रिय है और शुद्धियुक्त मनुष्य पर वे प्रसन्न होते हैं। (५०)

सत्संगी सदा सूर्योदय से पूर्व जागें। तत्पश्चात् स्नान आदि करके शुद्ध वस्त्र धारण करें। (५१)

तत्पश्चात् पूर्व अथवा उत्तर दिशा में मुख रखकर शुद्ध आसन पर बैठकर नित्यपूजा करें। (५२)

स्वामिनारायण मंत्र जपते हुए तथा गुरु का स्मरण करते हुए, ललाट में भगवान की पूजा में उपयुक्त प्रसादीभूत चंदन से ऊर्ध्वपुंड्र तिलक करें और कुमकुम से चन्द्रक (टीका) करें तथा छाती और दोनों भुजाओं पर चंदन से तिलक और चन्द्रक करें। (५३-५४)

महिलाएँ भगवान तथा गुरु का स्मरण करते हुए ललाट में केवल कुमकुम का चन्द्रक करें, तिलक न करें। (५५)

तत्पश्चात् सत्संग का आश्रित भक्त पूजा के अधिकार के लिए भगवान के प्रताप का चिंतन करते हुए आत्मविचार करें। प्रसन्न चित्त से भक्तिभावपूर्वक ‘अक्षरमहं पुरुषोत्तमदासोस्मि’ इस पवित्र मंत्र का उच्चारण करें। अपनी आत्मा में अक्षरब्रह्म की विभावना करें और शांत होकर, एकाग्र चित्त से मानसी पूजा करें। (५६-५८)

भगवान और ब्रह्मस्वरूप गुरु ही मोक्षदाता हैं। उनका ही ध्यान तथा मानसी पूजा करें। (५९)

तत्पश्चात् पवित्र वस्त्र पर चित्रप्रतिमाओं का भलीभाँति दर्शन हो इस प्रकार स्थापन करें। (६०)

इसमें मध्य में अक्षर तथा पुरुषोत्तम की मूर्ति स्थापित करें अर्थात् गुणातीतानंद स्वामी तथा उनके भी अधिपति भगवान श्रीस्वामिनारायण को स्थापित करें। (६१)

तत्पश्चात् प्रमुखस्वामीजी महाराज-पर्यंत प्रत्येक गुरु की मूर्ति स्थापित करें तथा जिन गुरुओं का स्वयं ने प्रत्यक्ष सेवन किया हो, उन गुरुओं की मूर्तियाँ स्थापित करें। (६२)

उसके पश्चात् आह्वान श्लोक बोलकर भगवान तथा गुरुओं का आह्वान करें। दोनों हाथ जोड़कर दासभाव से नमस्कार करें। (६३)

आह्वान मंत्र इस प्रकार है:

उत्तिष्ठ सहजानन्द श्रीहरे पुरुषोत्तम ।

गुणातीताक्षर ब्रह्मन् उत्तिष्ठ कृपया गुरो॥

आगम्यतां हि पूजार्थम् आगम्यतां मदात्मतः।

सान्निध्याद् दर्शनाद् दिव्यात् सौभाग्यं वर्धते मम॥ (६४-६५)

तत्पश्चात् स्थिर चित्त से महिमापूर्वक मूर्तियों के दर्शन करते-करते स्वामिनारायण मंत्र जपते हुए माला फेरें । तदनन्तर एक पैर पर खड़े होकर, हाथ ऊपर उठाकर मूर्तियों के दर्शन करते हुए तप की माला फेरें । (६६-६७)

तत्पश्चात् स्थिर चित्त से महिमापूर्वक मूर्तियों के दर्शन करते-करते स्वामिनारायण मंत्र जपते हुए माला फेरें । तदनन्तर एक पैर पर खड़े होकर, हाथ ऊपर उठाकर मूर्तियों के दर्शन करते हुए तप की माला फेरें । (६६-६७)

तत्पश्चात् सभी के केंद्र समान और सर्वत्र व्यापक अक्षरपुरुषोत्तम महाराज का चिंतन करते हुए प्रदक्षिणा करें। (६८)

तत्पश्चात् दासभाव से पुरुष साष्टांग दंडवत् प्रणाम करें और महिलाएँ बैठकर पंचांग प्रणाम करें। (६९)

किसी भक्त का अपराध हुआ हो तो उसके निवारण के लिए क्षमायाचनापूर्वक प्रतिदिन एक दंडवत् प्रणाम अधिक करें। (७०)

तत्पश्चात् शुभ संकल्पों की पूर्ति के लिए स्वामिनारायण मंत्र जपते हुए दिव्यभाव और भक्ति से प्रार्थना करें। (७१)

इस प्रकार भक्तिभाव से पूजा करके पुनरागमन मंत्र के द्वारा अक्षरपुरुषोत्तम महाराज को अपनी आत्मा में स्थापित करें। (७२)

पुनरागमन मंत्र इस प्रकार है:

भक्त्यैव दिव्यभावेन पूजा ते समनुष्ठिता ।

गच्छाथ त्वं मदात्मानम् अक्षरपुरुषोत्तम ॥ (७३)

तत्पश्चात् सत्संग की दृढता के लिए जिस शास्त्र में श्रीहरि तथा गुरु के आदेश और उपदेश समाविष्ट हों, उस शास्त्र का नित्य पठन करें। (७४)

तत्पश्चात् आदर और नम्रभाव से भक्तों को प्रणाम करें। इस प्रकार पूजा करने के बाद ही अपना व्यावहारिक कार्य करें। (७५)

पूजा किए बिना भोजन न करें और जल आदि भी न पीएँ। यात्रा के दौरान भी पूजा का त्याग न करें। (७६)

वृद्धावस्था, रोगादि तथा अन्य आपत्ति के कारण स्वयं पूजा करने में असमर्थ हों तो अन्य के द्वारा वह पूजा कराएँ। (७७)

घर में प्रत्येक सत्संगी अपनी स्वतंत्र पूजा रखे। पुत्र या पुत्री का जन्म हो उसी दिन से अपनी संतान के लिए पूजा-सामग्री ले लें। (७८)

नित्य भक्ति, प्रार्थना तथा सत्संग के लिए सभी सत्संगी घर में सुंदर मंदिर स्थापित करें। उसमें भक्तिभाव से विधिवत् अक्षर-पुरुषोत्तम तथा परंपरा में स्थित गुणातीत गुरुओं का प्रस्थापन करें। (७९-८०)

सभी सत्संगी जन प्रतिदिन प्रातः और सायंकाल घरमंदिर में आरती तथा स्तुतिगान करें। (८१)

आरती के समय स्थिर चित्त से भक्तिपूर्वक ताली बजाते हुए उच्च स्वर से जय स्वामिनारायण जय अक्षरपुरुषोत्तम...’ इस प्रकार आरती का गान करें। (८२)

जो भोजन बनाया हो उसे घरमंदिर में निवेदित करें। तत्पश्चात् भक्तिभाव से प्रार्थना बोलकर प्रासादिक भोजन ग्रहण करें। (८३)

भगवान को अर्पण किए बिना अन्न, फल, जल आदि ग्रहण न करें। जिसकी शुद्धि के विषय में शंका हो वैसा अन्न आदि भगवान को निवेदित न करें और न खाएँ। (८४)

घरमंदिर में बैठकर स्थिर चित्त से भावपूर्वक कीर्तन, जप या स्मृति इत्यादि अपनी रुचि के अनुसार करें। (८५)

घर के सदस्य एकत्र होकर प्रतिदिन घरसभा करें और उसमें भजन, गोष्ठी, शास्त्रों का पठन इत्यादि करें। (८६)

श्रीहरि ने शुद्ध उपासना-भक्ति की पुष्टि तथा रक्षा के लिए मंदिर-निर्माणरूप भक्ति का प्रवर्तन किया है एवं भगवान के साथ उनके उत्तम भक्त अक्षरब्रह्म की भगवान के समान ही सेवा करने की आज्ञा दी है। (८७-८८)

अक्षरब्रह्म भगवान के उत्तम भक्त हैं। क्योंकि वे नित्य माया से परे हैं और नित्य भगवान की सेवा में रत हैं। (८९)

(परब्रह्म के साथ अक्षरब्रह्म की समान सेवा करने की) उस आज्ञा के अनुसार सभी का कल्याण करने हेतु दिव्य मंदिरों का निर्माण भक्तिपूर्वक किया जाता है, और उनके मध्यखंड में पुरुषोत्तम भगवान की मूर्ति के साथ अक्षरब्रह्म की मूर्ति भी विधिवत् स्थापित की जाती है। (९०-९१)

उसी प्रकार घर आदि स्थानों में निर्मित मंदिरों में भी मध्य में सदा अक्षरब्रह्म सहित पुरुषोत्तम भगवान को स्थापित किया जाता है। (९२)

सभी सत्संगी प्रातःकाल, संध्या समय अथवा अपने अनुकूल समय पर प्रतिदिन भक्तिपूर्वक समीपवर्ती मंदिर में दर्शन करने जाएँ। (९३)

सभी सत्संगी नर-नारी सदैव जिस प्रकार अपने धर्म की रक्षा हो, उसी प्रकार वस्त्र धारण करें। (९४)

सत्संग की दृढता के लिए हर सप्ताह समीपवर्ती मंदिर या मंडल में सत्संग-सभा के लिए जाएँ। (९५)

अक्षराधिपति भगवान श्रीस्वामिनारायण साक्षात् परमात्मा परब्रह्म पुरुषोत्तम श्रीहरि हैं। (९६)

एकमात्र वे ही सदैव हमारे परम उपास्य इष्टदेव हैं। उनकी ही अनन्य भाव से सदा भक्ति करें। (९७)

गुणातीतानंद स्वामी साक्षात् सनातन अक्षरब्रह्म हैं। उस अक्षरब्रह्म की परंपरा आज भी विद्यमान है। (९८)

संप्रदाय में गुणातीतानंद स्वामी से प्रारंभ हुई गुरुपरंपरा में स्थित प्रकट अक्षरब्रह्म ही एकमात्र हमारे गुरु हैं। (९९)

हमारे इष्टदेव एक ही हैं, गुरु एक ही हैं और सिद्धांत भी एक ही है। इस प्रकार हमारी सदैव एकता है। (१००)

ब्रह्मविद्यारूप, वैदिक, सनातन एवं दिव्य अक्षरपुरुषोत्तम सिद्धांत को समझें। (१०१)

मुमुक्षु के लिए ज्ञातव्य है कि जीव, ईश्वर, माया, अक्षरब्रह्म तथा परब्रह्म, ये पाँच तत्त्व सर्वदा भिन्न हैं, नित्य हैं और सत्य हैं - इस प्रकार भगवान श्रीस्वामिनारायण ने स्वयं स्पष्ट सिद्धांत प्रतिपादित किया है। (१०२-१०३)

उसमें अक्षर और पुरुषोत्तम ये दो सदैव माया से परे हैं, और उनके योग से जीवों तथा ईश्वरों की मुक्ति होती है। (१०४)

परमात्मा परब्रह्म सदैव अक्षरब्रह्म से परे हैं और अक्षरब्रह्म भी दासभाव से सर्वदा उनकी सेवा करते हैं। (१०५)

भगवान सदैव सर्वकर्ता, साकार, सर्वोपरि हैं और मुमुक्षुओं की मुक्ति के लिए सदा प्रकट रहते हैं। (१०६)

अक्षरब्रह्मस्वरूप गुरु के द्वारा भगवान अपने संपूर्ण ऐश्वर्य के साथ, परमानंद प्रदान करते हुए सदा प्रकट रहते हैं । (१०७)

अक्षरब्रह्म गुरु में दृढ प्रीति एवं आत्मबुद्धि करें, प्रत्यक्ष भगवान के भाव से भक्तिपूर्वक उनकी सेवा तथा ध्यान करें। (१०८)

स्वामिनारायण मंत्र दिव्य, अलौकिक एवं शुभ मंत्र है। स्वयं श्रीहरि ने यह मंत्र दिया है। सभी भक्त उसका जप करें। इस मंत्र में ‘स्वामि’ शब्द को अक्षरब्रह्म का तथा ‘नारायण’ शब्द को उस अक्षरब्रह्म से परे स्थित परब्रह्म का द्योतक जानें। (१०९-११०)

यह सिद्धांत भगवान श्रीस्वामिनारायण ने इस लोक में प्रबोधित किया। गुणातीत गुरुओं ने इसे दिगंत में प्रवर्तित किया। शास्त्रीजी महाराज (स्वामी यज्ञपुरुषदासजी) ने इसे मूर्तिमान किया। गुरुओं के जीवनचरित्र-ग्रंथों में इसकी पुनः दृढता कराई गई। गुरुहरि प्रमुखस्वामीजी महाराज ने इसे अपने हस्ताक्षर से लिखकर स्थिर किया। साक्षात् गुरु के प्रसंग से इस सिद्धांत को जीवन में प्राप्त किया जा सकता है। इस मुक्तिप्रद सनातन सिद्धांत को ही दिव्य ‘अक्षरपुरुषोत्तम दर्शन’ कहा जाता है। (१११-११४)

ऐसे परम दिव्य सिद्धांत का चिंतन करते हुए निष्ठापूर्वक आनंद तथा उत्साह से सत्संग करें। (११५)

तीनों देहों से विलक्षण अपनी आत्मा में ब्रह्मरूप की विभावना कर सदैव परब्रह्म की उपासना करें। (११६)

अक्षराधिपति परमात्मा की भक्ति सदैव धर्म सहित करें। धर्म से रहित भक्ति कदापि न करें। (११७)

भक्ति तथा ज्ञान का आलंबन लेकर या किसी पर्व (उत्सव) का आलंबन लेकर भी मनुष्य अधर्म का आचरण न करें। (११८)

त्योहार में भी भाँग, मदिरा आदि का पान करना, जुआ आदि खेलना, अपशब्द बोलना इत्यादि न करें। (११९)

परब्रह्म तथा अक्षरब्रह्म के अतिरिक्त अन्यत्र प्रीति न होना ही वैराग्य है। यह भक्ति का सहायक अंग है। (१२०)

निंदा, लज्जा, भय अथवा अन्य विघ्न आने पर भी सत्संग, श्रीस्वामिनारायण भगवान, उनकी भक्ति एवं गुरु का त्याग कदापि न करें। (१२१)

भगवान एवं भक्तों की सेवा शुद्ध भाव से, अपना बड़ा सौभाग्य मानकर अपने मोक्ष के लिए करें। (१२२)

सत्संग एवं भजन के बिना व्यर्थ समय व्यतीत न करें। आलस्य एवं प्रमाद आदि का सदैव परित्याग करें। (१२३)

भजन करते हुए क्रिया करें। आज्ञा के अनुसार क्रिया-प्रवृत्ति करें। इससे क्रिया बंधनकारक नहीं होती, क्रिया भाररूप नहीं लगती तथा क्रिया करने पर भी अभिमान नहीं आता। (१२४)

सेवा, कथा, स्मरण, ध्यान, पठन आदि तथा भगवत्कीर्तन इत्यादि से समय को सुफल करें। (१२५)

सत्संग का आश्रय अपने दुर्गुणों को दूर करने, सद्‌गुणों को प्राप्त करने एवं अपने परम कल्याण के लिए करें। (१२६)

भगवान श्रीस्वामिनारायण तथा गुणातीत गुरुओं की प्रसन्नता प्राप्त करने के लिए सदैव सत्संग का आश्रय करें। (१२७)

अहो! हमें तो अक्षर एवं पुरुषोत्तम दोनों यहीं मिले हैं। उनकी प्राप्ति के उल्लास से सत्संग के आनंद का सदैव अनुभव करें। (१२८)

सेवा, भक्ति, कथा, ध्यान, तप तथा यात्रा इत्यादि साधन अभिमान, दंभ, ईर्ष्या, स्पर्धा एवं द्वेष से या लौकिक फल की इच्छा से कदापि न करें, परंतु श्रद्धा के साथ, शुद्धभाव से तथा भगवान की प्रसन्नता-प्राप्ति के लिए करें। (१२९-१३०)

भगवान एवं गुरु में मनुष्यभाव न देखें। क्योंकि अक्षर और पुरुषोत्तम दोनों माया से परे हैं, दिव्य हैं। (१३१)

भगवान तथा गुरु में विश्वास दृढ करें, निर्बलता का त्याग करें, धैर्य धारण करें एवं भगवान के बल का आधार रखें। (१३२)

भगवान श्रीस्वामिनारायण के लीलाचरित्रों का श्रवण, कथन, पठन, मनन एवं निदिध्यासन करें। (१३३)

मुमुक्षु प्रत्यक्ष अक्षरब्रह्म गुरु का प्रसंग सदैव परम प्रीति एवं दिव्यभाव से करें। (१३४)

अक्षरब्रह्मस्वरूप गुरु में दृढ प्रीति ही ब्राह्मी स्थिति एवं भगवान के साक्षात्कार का साधन है। (१३५)

अक्षरब्रह्म गुरु के गुणों को आत्मसात् करने के लिए तथा परब्रह्म की अनुभूति के लिए अक्षरब्रह्म गुरु के प्रसंगों का सदैव मनन करें। (१३६)

मन-कर्म-वचन से गुरुहरि का सदैव सेवन करें एवं उनके स्वरूप में प्रत्यक्ष नारायणस्वरूप की भावना करें। (१३७)

सत्संगी कदापि बलहीन बात न तो सुनें और न ही करें। सदा उत्साहपूर्ण बातें करें। (१३८)

प्रेम एवं आदर से ब्रह्म एवं परब्रह्म की महिमा तथा उनके संबंधयुक्त भक्तों की महिमा की बातें निरंतर करें। (१३९)

मुमुक्षु, सत्संगीजनों में सुहृद्भाव, दिव्यभाव एवं ब्रह्मभाव रखे। (१४०)

परमात्मा परब्रह्म भगवान श्रीस्वामिनारायण, अक्षरब्रह्मस्वरूप गुणातीत गुरु, उनके द्वारा प्रदान किए गए दिव्य सिद्धांत एवं उनके आश्रित भक्तों का सदैव विवेकसहित पक्ष रखें। (१४१-१४२)

भगवान एवं ब्रह्मस्वरूप गुरु की आज्ञा का सदैव पालन करें। उनकी अनुवृत्ति (रुचि) जानकर उसका दृढता से अनुसरण करें। आलस्य आदि का सर्वथा परित्याग करके उनकी आज्ञा का पालन तुरंत करें। सदा आनंद, उत्साह एवं महिमा के साथ उन्हें प्रसन्न करने के भाव से आज्ञा का पालन करें। (१४३-१४४)

प्रतिदिन स्थिर चित्त से अंतर्दृष्टि करें कि मैं इस लोक में क्या करने आया हूँ? और क्या कर रहा हूँ? (१४५)

अक्षररूप होकर मैं पुरुषोत्तम की भक्ति करूँ’ इस प्रकार प्रतिदिन अपने लक्ष्य का चिंतन आलस्यरहित होकर करें। (१४६)

यह स्वामिनारायण भगवान सर्वकर्ताहर्ता हैं, सर्वोपरि हैं, नियामक हैं। वे मुझे यहाँ प्रत्यक्ष मिले हैं। इसीलिए मैं धन्य हूँ, परम भाग्यशाली हूँ, कृतार्थ हूँ, निःशंक हूँ, निश्चिंत हूँ एवं सदा सुखी हूँ। (१४७-१४८)

इस प्रकार परमात्मा की दिव्य प्राप्ति, उनकी महिमा तथा उनकी प्रसन्नता का चिंतन प्रतिदिन स्थिर चित्त से करें। (१४९)

अपनी आत्मा को तीनों शरीर, तीनों अवस्था एवं तीनों गुणों से भिन्न समझकर, उसकी अक्षरब्रह्म के साथ एकता की विभावना प्रतिदिन करें। (१५०)

प्रतिदिन संसार की नश्वरता का विचार करें एवं अपनी आत्मा की नित्यता तथा सच्चिदानंदरूपता का चिंतन करें। (१५१)

जो हो गया है, जो हो रहा है और जो कुछ भी आगे होगा, वह सब भगवान श्रीस्वामिनारायण की इच्छा से मेरे हित के लिए ही है, ऐसा समझें। (१५२)

भगवान श्रीस्वामिनारायण तथा ब्रह्मस्वरूप गुरु को विश्वास एवं भक्तिभाव से प्रतिदिन प्रार्थना करें। (१५३)

मान, ईर्ष्या, काम, क्रोध इत्यादि दोषों के आवेग के समय ‘मैं अक्षर हूँ, पुरुषोत्तम का दास हूँ’ इस प्रकार शांत मन से चिंतन करें। (१५४)

और सर्व दोषों का निवारण करनेवाले साक्षात् भगवान श्रीस्वामिनारायण मेरे साथ हैं, इस प्रकार भगवद्‌बल को धारण करें। (१५५)

स्वधर्म का सदैव पालन करें। परधर्म का त्याग करें। भगवान एवं गुरु की आज्ञा का पालन ही स्वधर्म है; उनकी आज्ञा का उल्लंघन करके मनमाना आचरण किया जाए तो उसे विवेकी मुमुक्षु परधर्म समझें। (१५६-१५७)

जो कर्म फलदायी होने पर भी भक्ति में बाधक हो, सत्संग के नियम के विरुद्ध हो तथा जिसके आचरण से धर्म का लोप होता हो, ऐसे कर्म का आचरण न करें। (१५८)

आयु, ज्ञान या गुणों में जो वरिष्ठ हों, उन्हें सादर प्रणाम कर उनका मधुर वचन आदि से यथोचित सम्मान करें। (१५९)

विद्वानों, वरिष्ठों एवं अध्यापकों को सदा आदर प्रदान करें। उत्कृष्ट वचन आदि क्रियाओं के द्वारा यथाशक्ति उनका सत्कार करें। (१६०)

व्यक्ति के गुण एवं कार्य आदि के अनुसार उसे संबोधित करें। यथाशक्ति उसे शुभ कार्यों में प्रोत्साहित करें। (१६१)

सत्य, हितकारी एवं प्रिय वाणी बोलें। किसी मनुष्य पर मिथ्या अपवाद का आरोपण कदापि न करें। (१६२)

अपशब्दों से युक्त, सुननेवाले को दुःखदायक, निंदनीय, कठोर एवं द्वेषपूर्ण कुत्सित वाणी न बोलें। (१६३)

कदापि असत्य न बोलें। हितकारी सत्य बोलें। अन्य का अहित हो, ऐसा सत्य भी न बोलें। (१६४)

किसी के अवगुण या दोषों की बात कभी न करें। इससे अशांति होती है तथा भगवान और गुरु की अप्रसन्नता होती है। (१६५)

अत्यंत आवश्यकता होने पर अधिकृत व्यक्ति को परिशुद्ध भावना से सत्य कहने में दोष नहीं है। (१६६)

जिनसे अन्य का अहित हो, उसे दुःख हो, या कलह बढ़े, ऐसा आचरण या विचार कदापि न करें। (१६७)

सुहृदयभाव रखकर भक्तों के शुभ गुणों का स्मरण करें। उनका अवगुण न देखें और न ही किसी भी प्रकार से उनका द्रोह करें। (१६८)

सुख में उन्माद एवं दुःख में उद्वेग से दूर रहें। क्योंकि सब कुछ स्वामिनारायण भगवान की इच्छा से होता है। (१६९)

किसी के साथ विवाद या कलह कदापि न करें। सदैव विवेकयुक्त आचरण करें तथा शांति रखें। (१७०)

कोई भी मनुष्य अपने वचन, आचरण, विचार तथा लेखन में कदापि कठोरता न रखे। (१७१)

गृहस्थ सत्संगी माता-पिता की सेवा करें। प्रतिदिन उनके चरणों में नमस्कार करें। (१७२)

वधू अपने ससुर को पितातुल्य एवं सास को मातातुल्य मानकर सेवा करे। सास-ससुर भी पुत्रवधू का अपनी पुत्री के समान पालन करें। (१७३)

गृहस्थ भक्त अपने पुत्र-पुत्रियों का सत्संग, शिक्षण आदि से भलीभाँति पोषण करें। अन्य संबंधियों की भावपूर्वक यथाशक्ति सेवा करें। (१७४)

घर में मधुर वाणी बोलें। कर्कश वाणी का त्याग करें तथा मलिन आशय से किसी को पीड़ा न पहुँचाएँ। (१७५)

गृहस्थ अपने घर में एकत्र होकर आनंदपूर्वक भोजन करें एवं घर पर पधारे अतिथियों की यथाशक्ति संभावना (सेवा-सत्कार) करें। (१७६)

मृत्यु आदि प्रसंगों में विशेष भजन-कीर्तन करें, कथा करें, अक्षरपुरुषोत्तम महाराज का स्मरण करें। (१७७)

पुत्री या पुत्र के रूप में प्राप्त अपनी संतानों को सत्संग के दिव्य सिद्धांतों, शुभ आचरणों एवं सद्‌गुणों के द्वारा संस्कार प्रदान करें। (१७८)

संतान जब गर्भ में हो, तभी से उसे सत्संग संबंधी शास्त्रों के पठन आदि द्वारा संस्कार दें एवं अक्षरपुरुषोत्तम महाराज में निष्ठा कराएँ। (१७९)

पुरुष कदापि स्त्रियों को कुदृष्टि से न देखें। उसी प्रकार स्त्रियाँ भी पुरुषों को कुदृष्टि से न देखें। (१८०)

गृहस्थाश्रमी पुरुष अपनी पत्नी के अतिरिक्त अन्य स्त्रियों के साथ आपत्काल के बिना कहीं भी एकांत में न रहें। (१८१)

उसी प्रकार स्त्रियाँ भी अपने पति के अतिरिक्त अन्य पुरुषों के साथ आपत्काल के बिना एकांत में न रहें। (१८२)

पुरुष अपनी निकटतम संबंधिनी स्त्री के अतिरिक्त अन्य स्त्रियों का स्पर्श न करें, उसी प्रकार स्त्रियाँ भी अपने निकटतम संबंधी के अतिरिक्त अन्य पुरुषों का स्पर्श न करें। (१८३)

आपत्काल के समय अन्य की रक्षा के लिए स्पर्श करने में दोष नहीं है। परंतु आपत्काल न होने पर तो नियमों का सदैव पालन करें। (१८४)

धर्म एवं संस्कारों का नाश करनेवाले अश्लील दृश्य जिसमें दिखाई देते हों, ऐसे नाटक या चलचित्र आदि कदापि न देखें। (१८५)

सत्संगीजन व्यसनी, निर्लज्ज तथा व्यभिचारी मनुष्य की संगत न करें। (१८६)

स्त्रियाँ अपने धर्म की रक्षा के लिए चरित्रहीन स्त्री का संग न करें तथा दृढतापूर्वक नियमों का पालन करें। (१८७)

कामवासना को उत्तेजित करनेवाली बातें अथवा गीत न सुनें, ऐसी पुस्तकें न पढ़ें और न ही ऐसे दृश्यों को देखें। (१८८)

धन, द्रव्य तथा भूमि आदि के लेन-देन में सदैव लिखित प्रमाण, साक्षी की उपस्थिति इत्यादि नियमों का पालन अवश्य करें। (१८९)

सभी आश्रित जन अपने संबंधियों के साथ होनेवाले व्यावहारिक प्रसंग में भी लिखित प्रमाण इत्यादि सभी नियमों का पालन करें। (१९०)

सत्संगी जन दुष्टों के साथ कदापि व्यवहार न करें तथा दीनजनों के प्रति दयावान बनें। (१९१)

लौकिक कार्य, बिना विचार किए तत्काल न करें परंतु उसके परिणाम आदि पर विचार करके विवेकपूर्वक करें। (१९२)

कोई भी मनुष्य कभी रिश्वत न लें। धन का व्यर्थ व्यय न करें। अपनी आय के अनुसार धन का व्यय करें। (१९३)

प्रशासन के नियमों का अनुसरण करके सदैव अपनी आय एवं व्यय का ब्यौरा व्यवस्थित रखें। (१९४)

अपनी आय में से दसवाँ या बीसवाँ भाग यथाशक्ति श्रीस्वामिनारायण भगवान की सेवा-प्रसन्नता के लिए अर्पण करें। (१९५)

गृहस्थ अपने उपयोग के अनुसार एवं समय-शक्ति के अनुसार अनाज, द्रव्य या धन आदि का संग्रह करें। (१९६)

पालतु पशु-पक्षी आदि की अन्न, फल, जल इत्यादि से यथाशक्ति उचित देखभाल करें। (१९७)

धन, द्रव्य या भूमि आदि के लेन-देन में विश्वासघात और कपट न करें। (१९८)

कर्मचारियों को जितना धन आदि देने का वचन दिया हो, उस वचन के अनुसार धन आदि दें; परंतु उससे कम कदापि न दें। (१९९)

सत्संगी कदापि विश्वासघात न करें। दिए हुए वचन का पालन करें। प्रतिज्ञा का उल्लंघन न करें। (२००)

प्रशासक, सुशासन के लिए आवश्यक धर्मों का पालन करें। लोगों का भरण-पोषण करें। संस्कारों की रक्षा करें। सभी के अभ्युदय के लिए स्वास्थ्य, शिक्षण, संरक्षण, बिजली, अनाज, जल आदि द्वारा यथोचित व्यवस्था करें। (२०१-२०२)

प्रशासक, सुशासन के लिए आवश्यक धर्मों का पालन करें। लोगों का भरण-पोषण करें। संस्कारों की रक्षा करें। सभी के अभ्युदय के लिए स्वास्थ्य, शिक्षण, संरक्षण, बिजली, अनाज, जल आदि द्वारा यथोचित व्यवस्था करें। (२०१-२०२)

मनुष्य के गुण, सामर्थ्य, रुचि आदि को जानकर, विचार करके उसके लिए उचित कार्यों में उसे प्रेरित करें। (२०३)

जिस देश में भगवान की भक्ति हो सके तथा अपने धर्म का पालन हो सके, ऐसे देश में सुखपूर्वक निवास करें। (२०४)

विद्या, धन आदि की प्राप्ति के लिए देशांतर में जाए तो वहाँ भी आदरपूर्वक सत्संग करें और नियमों का पालन करें। (२०५)

जिस देश में स्वयं रहते हों, उस देश के प्रशासनिक नियमों का सर्वथा पालन करें। (२०६)

जब देशकालादि के कारण परिस्थिति विपरीत हो जाए, तब धैर्यपूर्वक अक्षरपुरुषोत्तम महाराज का आनंदसहित हृदय में भजन करें। (२०७)

अपने निवासक्षेत्र में आपत्काल आ पड़ने पर उस क्षेत्र का त्याग करके, अन्य क्षेत्र में सुखपूर्वक निवास करें। (२०८)

बालक और बालिकाएँ शिशुकाल से ही विद्या प्राप्त करें। दुराचार, कुसंग और व्यसनों का त्याग करें। (२०९)

विद्यार्थी अपना अध्ययन स्थिर चित्त, उत्साह और आदर से करें। व्यर्थ कार्यों में समय का व्यय न करें। (२१०)

बाल्यावस्था से ही सेवा, विनम्रता आदि सद्‌गुणों को दृढ करें। निर्बलता तथा भय के अधीन कभी न हों। (२११)

बाल्यावस्था से ही सत्संग, भक्ति और प्रार्थना करें। प्रतिदिन पूजा करें और माता-पिता को पंचांग प्रणाम करें। (२१२)

कुमार तथा युवावस्था में विशेष संयम रखें। शक्ति का नाश करनेवाले अयोग्य स्पर्श, दृश्य आदि का त्याग करें। (२१३)

ऐसा ही साहस करें जो उत्कृष्टफलदायक, उन्नतिकारक तथा उचित हो। जो केवल अपने मन का और लोगों का रंजन करे वैसा साहस न करें। (२१४)

अवश्य करने योग्य उद्यम में कदापि आलस्य न करें। भगवान में श्रद्धा और प्रीति करें। प्रतिदिन पूजा और सत्संग करें। (२१५)

इस लोक में संग बलवान है। जैसा संग होता है वैसा जीवन बनता है। इसलिए उत्तम मनुष्यों का संग करें। कुसंग का सर्वथा त्याग करें। (२१६)

जो मनुष्य कामासक्त, कृतघ्नी, लोगों को छलनेवाला, पाखंडी तथा कपटी हो, उसके संग का परित्याग करें। (२१७)

जो मनुष्य भगवान तथा उनके अवतारों का खंडन करता हो, परमात्मा की उपासना का खंडन करता हो और साकार भगवान को निराकार मानता हो उसका संग न करें। ऐसे ग्रंथ भी न पढ़ें। (२१८-२१९)

जो मनुष्य मंदिर तथा भगवान की मूर्तियों का खंडन करता हो, सत्य-अहिंसा आदि धर्मों का खंडन करता हो उसके संग का त्याग करें। (२२०)

जो मनुष्य गुरुशरणागति का विरोध करता हो, वैदिक शास्त्रों का खंडन करता हो, भक्तिमार्ग का विरोध करता हो उसका संग न करें। (२२१)

कोई मनुष्य लोक में व्यावहारिक कार्यों में बुद्धिमान हो अथवा शास्त्रों में पारंगत भी हो फिर भी यदि वह भक्ति से रहित हो तो उसका संग न करें। (२२२)

आध्यात्मिक विषयों में श्रद्धा का ही तिरस्कार करके जो मनुष्य केवल तर्क को ही प्राधान्य देता हो उसकी संगत न करें। (२२३)

मुमुक्षु हरिभक्त सत्संग में छिपे हुए कुसंग को भी जानें तथा उसका संग कदापि न करें। (२२४)

जो मनुष्य प्रत्यक्ष भगवान में और गुरु में मनुष्यभाव देखता हो तथा नियम-पालन में शिथिल हो उसका संग न करें। (२२५)

जो मनुष्य भक्तों में दोष देखनेवाला, अवगुण की ही बातें करनेवाला, मनमानी करनेवाला तथा गुरुद्रोही हो उसकी संगत न करें। (२२६)

जो मनुष्य सत्कार्य, सत्शास्त्र तथा सत्संग की निंदा करता हो उसकी संगत न करें। (२२७)

जिसकी बातें सुनने से भगवान, गुरु तथा सत्संग के प्रति निष्ठा मिट जाए, उसके संग का परित्याग करें। (२२८)

जिसे अक्षरपुरुषोत्तम के प्रति दृढ निष्ठा हो, दृढ भक्ति हो तथा जो विवेकी हो, उसकी संगत आदरपूर्वक करें। (२२९)

भगवान तथा गुरु के वाक्यों में जिसे संशय न हो, जो विश्वासी हो, बुद्धिमान हो उसका संग आदर से करें। (२३०)

आज्ञापालन में जो सदा उत्साह से तत्पर हो, दृढ हो; जो निर्मानी तथा सरल हो, उसकी संगत आदर के साथ करें। (२३१)

भगवान और गुरु के दिव्य तथा मनुष्य चरित्रों में जो स्नेहपूर्वक दिव्यता का दर्शन करता हो, उसकी संगत आदर के साथ करें। (२३२)

सत्संग में जो मनुष्य अन्य के गुणों को ग्रहण करने में तत्पर हो, दुर्गुणों की बात न करता हो, सुहृद्‌भावयुक्त हो, उसकी संगत आदरपूर्वक करें। (२३३)

जिसके आचार तथा विचार में गुरुहरि को प्रसन्न करने का एकमात्र लक्ष्य हो, उसकी संगत आदरपूर्वक करें। (२३४)

अपनी शक्ति और रुचि के अनुसार संस्कृत तथा प्राकृत भाषा में अपने संप्रदाय के ग्रंथों का पठन-पाठन करें। (२३५)

वचनामृत, गुणातीतानंद स्वामी की बातें (उपदेशामृत) तथा गुणातीत गुरुओं के जीवनचरित्र नित्य भावपूर्वक पढ़ें। (२३६)

भगवान श्रीस्वामिनारायण तथा गुणातीत गुरुओं के उपदेश एवं चरित्र सत्संगियों का जीवन है। अतः सत्संगी प्रतिदिन उनका शांत चित्त से श्रवण, मनन तथा निदिध्यासन महिमासहित, श्रद्धापूर्वक एवं भक्तिपूर्वक करें। (२३७-२३८)

संप्रदाय के सिद्धांतों में बाधा डालनेवाले तथा संशय उत्पन्न करनेवाले वचनों को न पढ़ें, न सुनें और न ही मानें। (२३९)

भगवान श्रीस्वामिनारायण के प्रति हृदय में पराभक्ति दृढ करने के लिए गुरुहरि के आदेश से चातुर्मास में व्रत करें। (२४०)

इसमें चांद्रायण, उपवास इत्यादि तथा मंत्रजप, प्रदक्षिणा, कथाश्रवण, अधिक दंडवत् प्रणाम इत्यादि रूप से विशेष भक्ति का आचरण श्रद्धासहित, प्रीतिपूर्वक तथा भगवान की प्रसन्नता के लिए करें। (२४१-२४२)

उस समय अपनी रुचि तथा शक्ति के अनुसार संप्रदाय के शास्त्रों का नियमपूर्वक पठन-पाठन करें। (२४३)

भगवान के प्रति प्रीति बढ़ाने के लिए सभी सत्संगी हर्ष, उल्लास और भक्तिभाव से उत्सव करें। (२४४)

भगवान श्रीस्वामिनारायण तथा अक्षरब्रह्म गुरुओं के जन्ममहोत्सव भक्तिभावपूर्वक सदैव मनाएँ। (२४५)

सत्संगीजन श्रीहरि तथा गुरु के विशिष्ट प्रसंगों के दिन यथाशक्ति पर्वोत्सव करें। (२४६)

पर्वोत्सव में भक्तिपूर्वक वाद्ययंत्रों के साथ कीर्तन करें तथा विशेष रूप से महिमा की बातें करें। (२४७)

चैत्र शुक्ल नवमी के दिन भगवान श्रीरामचंद्रजी का पूजन करें। श्रावण कृष्ण अष्टमी (पूर्णिमांत महीनों के अनुसार भाद्रपद कृष्ण अष्टमी) के दिन भगवान श्रीकृष्ण का पूजन करें। (२४८)

शिवरात्रि के दिन शंकर भगवान का पूजन करें। भाद्रपद शुक्ल चतुर्थी के दिन गणपतिजी का पूजन करें। (२४९)

आश्विन कृष्ण चतुर्दशी (पूर्णिमांत महीनों के अनुसार कार्तिक कृष्ण चतुर्दशी) के दिन हनुमानजी का पूजन करें। मार्ग में कोई मंदिर आए, तो उस देव को भावपूर्वक प्रणाम करें। (२५०)

विष्णु, शंकर, पार्वती, गणपति तथा सूर्य – इन पाँच देवताओं को पूज्यभाव से मानें। (२५१)

यहाँ विष्णु शब्द से विष्णु के अवतारस्वरूप श्रीराम, श्रीकृष्ण तथा श्रीसीता, श्रीराधा इत्यादि अर्थ भी अभिप्रेत है।

अक्षरपुरुषोत्तम महाराज में दृढ निश्चय रखें, तथापि किसी अन्य देव की निंदा न करें। (२५२)

अन्य धर्म, संप्रदाय या उनके अनुयायियों के प्रति द्वेष न करें। उनकी निंदा न करें। उनको सदैव आदर दें। (२५३)

मंदिर, शास्त्र तथा संतों की निंदा कदापि न करें। अपनी शक्ति के अनुसार उनका यथोचित सत्कार करें। (२५४)

संयम, उपवास इत्यादि जो-जो तप का आचरण करें, वह केवल भगवान की प्रसन्नता हेतु तथा भक्ति के लिए ही करें। (२५५)

एकादशी का व्रत सदैव परम आदर से करें। उस दिन निषिद्ध वस्तु कदापि न खाएँ। (२५६)

उपवास में दिन के दौरान निद्रा का प्रयत्नपूर्वक त्याग करें। दिन की निद्रा से उपवासरूप तप का नाश होता है। (२५७)

भगवान श्रीस्वामिनारायण ने स्वयं जिन स्थानों को प्रसादीभूत किया है तथा अक्षरब्रह्म गुरुओं ने जिन स्थानों को प्रसादीभूत किया है, उन स्थानों की यात्रा करने की जिसे इच्छा हो, वह यथाशक्ति अपनी रुचि के अनुसार करें। (२५८-२५९)

अयोध्या, मथुरा, काशी, केदारनाथ, बदरीनाथ तथा रामेश्वर इत्यादि तीर्थों की यात्रा यथाशक्ति अपनी रुचि के अनुसार करे। (२६०)

    मंदिर में आए हुए सभी दर्शनार्थी अपनी मर्यादा का पालन अवश्य करें। मंदिर में आए हुए पुरुष, महिला का स्पर्श न करें तथा महिलाएँ, पुरुष का स्पर्श न करें। (२६१)

मंदिर में महिलाएँ तथा पुरुष सदा सत्संग के नियमों के अनुसार वस्त्र धारण करें। (२६२)

भक्तजन भगवान अथवा गुरु के दर्शन करने खाली हाथ कदापि न जाएँ। (२६३)

सभी सत्संगी सूर्य अथवा चन्द्र के ग्रहणकाल में सभी क्रियाओं का त्याग कर भगवान का भजन करें। उस समय निद्रा तथा भोजन का परित्याग कर, एक स्थान पर बैठकर, ग्रहण पूर्ण होने तक भगवत्कीर्तन आदि करें। (२६४-२६५)

ग्रहण की मुक्ति होने पर सभी जन सवस्त्र स्नान करें। त्यागाश्रमी भगवान की पूजा करें तथा गृहस्थ दान करें। (२६६)

जन्म-मरण की सूतक-मृतक विधियों तथा श्राद्ध आदि विधियों का सत्संग की रीति के अनुसार पालन करें। (२६७)

किसी अयोग्य आचरण के हो जाने पर भगवान को प्रसन्न करने के लिए शुद्ध भाव से प्रायश्चित्त करें। (२६८)

आपत्काल में ही आपद्धर्म का आचरण करें। अल्प आपत्ति को बड़ी आपत्ति मानकर धर्म का त्याग न करें। (२६९)

कष्टदायक आपत्ति के अवसर पर भगवान के बल से जिस प्रकार अपनी और अन्य की रक्षा हो, वैसा आचरण करें। (२७०)

प्राणघातक आपत्ति के समय विवेकी मनुष्य गुरु के आदेशों का अनुसरण कर प्राणों की रक्षा करें और सुखपूर्वक रहे। (२७१)

सभी सत्संगीजन सत्संग की रीति के अनुसार, गुरु के आदेशानुसार तथा देश, काल, अवस्था के अनुसार परिशुद्ध भाव से यथाशक्ति आचार, व्यवहार और प्रायश्चित्त करें। (२७२-२७३)

धर्म-नियमों का पालन करने से जीवन उन्नत होता है और अन्य को भी सदाचार के पालन की प्रेरणा मिलती है। (२७४)

भगवान के भक्तजन कदापि भूत, प्रेत, पिशाच आदि का भय न रखें। ऐसी आशंकाओं का परित्याग कर सुखपूर्वक रहें। (२७५)

शुभ तथा अशुभ प्रसंगों में महिमासहित पवित्र सहजानंद नामावली का पाठ करें। (२७६)

जिन्हें सत्संग का आश्रय प्राप्त हुआ है, उनका अनिष्ट करने में काल, कर्म या माया कदापि समर्थ नहीं हैं। (२७७)

सत्संगी अनुचित विषय, व्यसन तथा आशंकाओं का सदैव त्याग करें। (२७८)

काल, कर्म आदि को कर्ता न मानें। अक्षरपुरुषोत्तम महाराज को सर्वकर्ता मानें। (२७९)

विपत्ति के समय धैर्य धारण करें, प्रार्थना करें और पुरुषार्थ करें तथा अक्षरपुरुषोत्तम महाराज के प्रति दृढ विश्वास रखें। (२८०)

जिन्हें त्यागाश्रम ग्रहण करने की इच्छा हो, वे अक्षरब्रह्मस्वरूप गुरु से दीक्षा ग्रहण करें। सभी त्यागाश्रमी अष्टप्रकार से ब्रह्मचर्य का सदैव पालन करें। (२८१)

त्यागाश्रमी, धन का त्याग करें तथा धन को अपना बनाकर न रखें। धन का स्पर्श भी कदापि न करें। (२८२)

    अक्षरपुरुषोत्तम महाराज में प्रीति बढ़ाने के लिए त्यागाश्रमी निष्काम, निर्लोभ, निःस्वाद, निःस्नेह, निर्मान एवं अन्य त्यागाश्रम संबंधी गुणों को धारण करें। (२८३-२८४)

अपनी आत्मा की ब्रह्म के साथ एकता प्राप्त कर त्यागाश्रमी दिव्यभाव से सदा स्वामिनारायण भगवान की भक्ति करें। (२८५)

यह त्याग केवल त्याग नहीं है, परंतु यह तो भक्तिमय त्याग है। यह त्याग अक्षरपुरुषोत्तम महाराज को प्राप्त करने के लिए है। (२८६)

आज्ञा-उपासना संबंधी ये सिद्धांत सर्वजीवहितावह, दुःखविनाशक एवं परम सुखदायक हैं। (२८७)

इस शास्त्र का अनुसरण करके जो जन श्रद्धा एवं प्रीति से अपने जीवन में आज्ञा-उपासना की दृढता करता है, वह भगवान की प्रसन्नता प्राप्त कर उनकी कृपा का पात्र बनता है। शास्त्रों में कही गई ब्राह्मी स्थिति इसी जीवनकाल में प्राप्त कर लेता है, एकांतिक धर्म सिद्ध कर लेता है। अंत में भगवान के शाश्वत, दिव्य अक्षरधाम को प्राप्त करता है, मुक्ति प्राप्त करता है एवं परम सुख प्राप्त करता है। (२८८-२९०)

अक्षरब्रह्म के साधर्म्य को प्राप्त कर पुरुषोत्तम की दासभाव से भक्ति करना ही आत्यंतिक मुक्ति मानी गई है। (२९१)

इस प्रकार संक्षिप्त रूप से यहाँ आज्ञा एवं उपासना का वर्णन किया है। इसका विस्तार संप्रदाय के शास्त्रों से जानें। (२९२)

सत्संगी जन प्रतिदिन इस ‘सत्संगदीक्षा’ शास्त्र का एकाग्रचित्त होकर पाठ करें। पाठ करने में जो असमर्थ हों, वे प्रीतिपूर्वक इसका श्रवण करें। एवं तदनुसार श्रद्धापूर्वक आचरण करने का प्रयत्न करें। (२९३-२९४)

परमात्मा परब्रह्म भगवान श्रीस्वामिनारायण ने अक्षरपुरुषोत्तम सिद्धांत की स्थापना की तथा गुणातीत गुरुओं ने उसका प्रवर्तन किया। उस सिद्धांत के अनुसार इस शास्त्र की रचना की है। (२९५-२९६)

परमात्मा परब्रह्म भगवान श्रीस्वामिनारायण ने अक्षरपुरुषोत्तम सिद्धांत की स्थापना की तथा गुणातीत गुरुओं ने उसका प्रवर्तन किया। उस सिद्धांत के अनुसार इस शास्त्र की रचना की है। (२९५-२९६)

परब्रह्म दयालु भगवान श्रीस्वामिनारायण केवल कृपा करके मुमुक्षुओं के मोक्ष के लिए इस लोक में अवतीर्ण हुए। उन्होंने सकल आश्रित भक्तों के योगक्षेम का वहन किया और इहलौकिक तथा पारलौकिक, दोनों प्रकार का कल्याण किया। (२९७-२९८)

परमात्मा परब्रह्म भगवान श्रीस्वामिनारायण के दिव्य कृपाशिष सदा सर्वत्र बरसते रहें। (२९९)

सभी के सर्व दुःख, तीनों ताप, उपद्रव, क्लेश, अज्ञान, संशय तथा भय का विनाश हो। (३००)

भगवान की कृपा से सभी निरामय स्वास्थ्य, सुख, परम शांति तथा परम कल्याण प्राप्त करें। (३०१)

कोई मनुष्य किसी का द्रोह एवं द्वेष न करें। सभी सदैव परस्पर आदरभाव रखें। (३०२)

अक्षरपुरुषोत्तम में सभी का दृढ स्नेह, निष्ठा, निश्चय तथा विश्वास सदैव अभिवृद्धि प्राप्त करें। (३०३)

सभी भक्त धर्मपालन में बलवान बनें और सहजानंद परमात्मा की प्रसन्नता प्राप्त करें। (३०४)

यह संसार प्रशांत, धर्मवान, साधनाशील तथा अध्यात्ममार्ग पर चलनेवाले मनुष्यों से युक्त हो। (३०५)

सभी मनुष्यों में परस्पर एकता, सुहृद्भाव, मैत्री, करुणा, सहनशीलता तथा स्नेह की अभिवृद्धि हो। (३०६)

ब्रह्म एवं परब्रह्म के दिव्य संबंध से सत्संग में सभी में निर्दोषभाव एवं दिव्यभाव की दृढता हो। (३०७)

सभी जन अपनी आत्मा में अक्षररूपता पाकर पुरुषोत्तम सहजानंद की भक्ति प्राप्त करें। (३०८)

विक्रम संवत् २०७६ के माघ शुक्ल पंचमी को इस शास्त्र के लेखन का आरंभ हुआ एवं चैत्र शुक्ल नवमी को भगवान श्रीस्वामिनारायण के दिव्य जन्म-महोत्सव पर यह संपूर्ण हुआ। (३०९-३१०)

उपास्य परब्रह्म सहजानंद श्रीहरि तथा मूल अक्षर गुणातीतानंद स्वामी, साक्षात् ज्ञानमूर्ति भगतजी महाराज, सत्य सिद्धांत के रक्षक यज्ञपुरुषदासजी (शास्त्रीजी महाराज), सदा वात्सल्य से प्लावित एवं आनंदमय ब्रह्म योगीजी महाराज तथा विश्ववंदनीय एवं विनम्र गुरु प्रमुखस्वामीजी महाराज को यह शास्त्ररूप अंजलि उन्ही के जन्म शताब्दी के पर्व पर सानंद भक्तिभावपूर्वक अर्पण की जाती है। (३११-३१४)

भगवान श्रीस्वामिनारायण अर्थात् साक्षात् अक्षरपुरुषोत्तम महाराज सकल विश्व में परम आनंद-मंगल का विस्तार करें। (३१५)

इति परब्रह्मस्वामिनारायण-प्रबोधिताऽऽज्ञोपासन-सिद्धान्तनिरूपकं

प्रकटब्रह्मस्वरूपश्रीमहन्तस्वामिमहाराजैः स्वहस्ताऽक्षरैर्गुर्जरभाषया

लिखितं महामहोपाध्यायेन साधुभद्रेशदासेन च संस्कृतश्लोकेषु

निबद्धं सत्सङ्गदीक्षेति शास्त्रं सम्पूर्णम् ।

 

 

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પરિચય પરીક્ષા - નિબંધ -3 - બાળવયે સત્સંગમય શાંતિલાલ (સ્વામિનારાયણ પ્રકાશ : જાન્યુઆરી -2022, પા.નં. 14-15)

 બાળવયે શાંતિલાલ સૌથી નોખા તરી આવતા હતા, તેનું એક સૌથી મોટું કારણ હતું - બાળપણથી જ સેવામય, ભક્તિમય, સરળ, સુહૃદયી સ્વભાવ. શાંતિલાલને પિતાજીની...